Saturday, May 5, 2012

विदेशी भाषाओं के नाम पर संस्कृत की उपेक्षा

सस्कृत मात्र भारत की प्राचीन भाषा ही नहीं, देश की आत्मा भी है। यह देश का गौरव भी है, इस सत्य को देशी और विदेशी विद्वानों ने स्वीकार किया है। वहीं यह भी शाश्वत सत्य है कि बगैर संस्कृत भाषा के ज्ञान के भारतीय संस्कृति को नहीं समझा जा सकता। इस बात को केवल भारतीय विद्वान ही नहीं, अपितु विदेशी विद्वान भी मानते हैं। विदेशी विद्वानों में मैक्समूलर एक ऐसा नाम है, जिन्होंने संस्कृत-साहित्य को आत्मसात करके संस्कृत की कई पुस्तकों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया। आज अनेक देशों में संस्कृत को विशेषत: पढ़ा और पढ़ाया जा रहा है। जर्मनी, अमेरिका, ब्रिटेन आदि देशों में पिछले कुछ वर्षों में संस्कृत के प्रति लोगों की रुचि बढ़ी है। ऐसे में यह बेहद शर्मसार करने वाला विषय है कि हमारे देश की सरकार ने विद्यालयों से संस्कृत भाषा के वजूद को मिटाने की जैसे ठान ही ली है। तभी तो गत दिनों केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने निर्णय लिया है कि केन्द्रीय विद्यालयों में फ्रेंच व जर्मन भाषा भी पढ़ाई जाए। वैसे किसी भी विदेशी भाषा का ज्ञान होना अच्छी बात है, पर अपनी सांस्कृतिक और प्राचीन भाषा की आहुति देकर नहीं। सरकार के इस फैसले से लगता है कि अपने ही देश में, अपनों के ही बीच संस्कृत अनिवार्य नहीं, महज विकल्प भाषा बनकर रह जाएगी। वैसे वर्तमान में केन्द्रीय विद्यालयों में कक्षा 6 से 8 तक संस्कृत अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाई जा रही है, किन्तु जर्मन व फेंच पढ़ाने के लिए संस्कृत की अनिवार्यता समाप्त कर दी जाएगी। बच्चों के सामने विकल्प होगा कि वे संस्कृत के स्थान पर जर्मन या प्रफेंच पढ़ सकते हैं। किन्तु कई विद्यालयों में संस्कृत को किनारे कर प्रफेंच या जर्मन भाषा थोपी जा रही है। वह भी उन छात्रों पर, जो किसी कक्षा के सेक्शन-ए में हैं। क्योंकि इस सेक्शन में मेधावी छात्र होते हैं। अन्य सेक्शन के बच्चों के साथ ऐसा नहीं किया जा रहा है। यानी देशी और विदेशी भाषा के नाम पर विद्यार्थियों को आपस में बांटा जा रहा है। दिल्ली स्थित एक केन्द्रीय विद्यालय में पढ़ने वाले छठी कक्षा के एक छात्र, जो सेक्शन ए में था, पर जबर्दस्ती जर्मन भाषा थोपी गई तो उसके अभिभावक ने इसका मुखर होकर विरोध किया और बच्चे को संस्कृत पढ़ाने पर जोर दिया। तब विद्यालय प्रशासन ने उनकी बात मान तो ली, किन्तु उस बच्चे को सेक्शन ए से सेक्शन बी में भेज दिया गया। सरकार के इस कदम पर दिल्ली के जनकपुरी क्षेत्र में स्थित राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के कुलपति डा. राधावल्लभ त्रिपाठी कहना है कि सरकार के इस निर्णय से संस्कृत को अपूरणीय क्षति होगी। कोई भी विदेशी भाषा संस्कृत के विकल्प के रूप नहीं पढ़ाई जानी चाहिए। लोग संस्कृत को पुरातनता का प्रतीक मानते हैं, जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं। लोगों में यह भी गलत धारणा है कि संस्कृत पढ़ने से जीवन में आगे बढ़ने के अवसर कम हो जाते हैं। इस हालत में संस्कृत को वैकल्पिक भाषा के रूप में शामिल करने से हमारे बच्चे अपनी प्राचीन भाषा से कट जाएंगे। आने वाले समय में देश पर इसका बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ेगा। इस विषय पर संस्कृत भारती के अखिल भारतीय मंत्री श्री श्रीश देवपुजारी का कहना है कि भारत में जर्मन एवं फ्रेंच भाषा के शिक्षक बहुत कम हैं, जबकि संस्कृत शिक्षक पर्याप्त हैं। फिर भी बच्चों को जर्मन या प्रफेंच पढ़ने के लिए बाध्य किया जा रहा है, और जो संस्कृत शिक्षक विभिन्न विद्यालयों में कार्यरत हैं, उन्हें नौकरी से बाहर करने का षडयंत्र रचा जा रहा है। दिल्ली में इस षडयंत्र की शिकार होते-होते बची हैं, दिल्ली के एक प्राइवेट स्कूल की शिक्षिका। हुआ यूं कि गत अप्रैल के प्रथम सप्ताह में विद्यालय प्रशासन ने इन्हें यह कहकर नौकरी से बाहर कर दिया कि अब इनकी जरूरत विद्यालय को नहीं है, क्योंकि बच्चे संस्कृत के स्थान पर प्रफेंच पढ़ेंगे। विरोधस्वरूप शिक्षिका ने विद्यालय के सामने धरना दिया। उनका साथ विद्यालय के उन छात्रों ने भी दिया, जो प्रफेंच नहीं, संस्कृत पढ़ना चाहते थे। धरना-प्रदर्शन करीब एक सप्ताह तक चला, इसके बाद विद्यालय प्रशासन ने अपना निर्णय बदल लिया और उन्हें नौकरी में वापस ले लिया गया है। संप्रग सरकार प्राचीन भाषा संस्कृत और राष्ट्र भाषा हिन्दी के प्रति सौतेला व्यवहार भी कर रही है। सरकार ने वर्ष 2011-12 के बजट में भाषाओं के विकास के लिए अलग से धनराशि उपलब्ध कराई है। सरकार ने पूरे देश में हिन्दी के विकास के लिए मात्र 50 करोड़ रुपए आवंटित किए हैं। संस्कृत के विकास के लिए तो एक पैसा भी खर्च करना सरकार को ठीक नहीं लगा। इसके विपरीत अरबी भाषा के विकास के लिए 100 करोड़ रुपये केवल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को उपलब्ध कराये हैं। संस्कृत भाषा की स्थिति ऐसी है तो समझा जा सकता है कि इसके शिक्षकों की स्थिति भी सुखद नहीं होगी। वर्तमान में देशभर के केन्द्रीय विद्यालयों में कुल 25 सौ संस्कृत भाषा के शिक्षक हैं। इनमें से अधिकतर की पदोन्नति नहीं हो रही है। संस्कृत का कोई शिक्षक टी.जी.टी. के रूप में नौकरी शुरू करता है और टी.जी.टी. के पद पर ही सेवानिवृत्ता भी हो जाता है। ऐसा इसलिए हो रहा है कि केन्द्रीय विद्यालयों में कक्षा 8 से आगे संस्कृत ऐच्छिक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है। ऐच्छिक विषय होने के कारण बहुत कम छात्र संस्कृत पढ़ते हैं। सरकार का तर्क है कि जब बड़ी कक्षाओं में संस्कृत का पठन-पाठन बहुत ही कम है, तो फिर किसी संस्कृत शिक्षक की पदोन्नति क्यों हो? इस कारण केन्द्रीय विद्यालयों में संस्कृत विषय में कोई पी.जी.टी. है ही नहीं। इन्हें समयानुसार वेतनमान तो मिल जाता है, पर पद नहीं मिल पाता। कुछ समय पूर्व यह जरूर किया गया है कि यदि किसी संस्कृत शिक्षक के पास स्नातकोत्तार हिन्दी की उपाधि होती है, तो उसे पी.जी.टी. का पद देकर हिन्दी शिक्षक बना दिया जाता है। सरकार ने संस्कृत को स्कूलों की चाहरदीवारी से बाहर करने के लिए एक और कदम उठाया है। केन्द्रीय अध्यापक पात्रता परीक्षा में संस्कृत को नहीं रखा गया है। उल्लेखनीय है कि इस वर्ष से केन्द्र स्तर पर केन्द्रीय अध्यापक पात्रता परीक्षा और राज्य स्तर पर राज्य अध्यापक पात्रता परीक्षा का प्रावधान किया गया है। केन्द्रीय अध्यापक पात्रता परीक्षा केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सी.बी.एस.ई.) की देखरेख में होगी। इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाला ही किसी केन्द्रीय विद्यालय या केन्द्र सरकार द्वारा संचालित अन्य विद्यालयों में शिक्षक बनने के लिए आवेदन कर सकता है। किन्तु इस परीक्षा में संस्कृत को शामिल नहीं किया गया है। इससे साफ है कि आगे से केन्द्र सरकार के अन्य विद्यालयों और केन्द्रीय विद्यालयों में संस्कृत शिक्षक की नियुक्ति भी नहीं हो पाएगी। इस तरह सरकार ने संस्कृत को अब अपने अधीन विद्यालयों से विदाई करने की पूरी तैयारी कर ली है। अगर सरकार की यही नीयत रही और विदेशों में संस्कृत के प्रति बढ़ती रुचि की गति ऐसे ही जारी रही तो यह भी हो सकता है कि आने वाले समय में अपने ही देश के लोगों को संस्कृत पढ़ने के लिए विदेश जाना पड़े। सौजन्य : लिंक

संस्कृत हटाने की साज़िश

 शायद विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत में मंदिरों और शहरों के ध्वंस, दिल्ली में अठारह बार जनसंहार और तक्षशिला-नालंदा के विराट ग्रंथागार जलाने के बाद गाजी होने के जो खिताब पाए थे, उससे बढ़ कर अपना मुकद्दस फर्ज अदा करने की कोशिश सल्तनते-हिंदुस्तान के भूरे-काले या चितकबरे अंग्रेज कर रहे हैं। दुनिया में हर कोई इस बात पर यकीन करेगा कि अगर इस दुनिया के ओर-छोर में कोई ऐसा देश होगा, जहां संस्कृत को खत्म करने की अंतिम निर्णायक कोशिश नहीं होने दी जाएगी, तो वह देश सिर्फ भारतवर्ष हो सकता है। एक पवित्र, पावन सांस्कृतिक परंपरा, राष्ट्रीयता के इतिहास, हजारों वर्ष पुराने समाज के आरोह-अवरोह, संघर्षों और विजय गाथाओं को अपरिमित परिमाण में अपने अंक में समेटे एकमात्र वह भाषा, जो विज्ञान के आधुनिकतम मानदंडों पर खरी और शब्द संसार के उच्चतम शिखरों को भी उच्चतर बनाने में सक्षम मानी जाती है। इसका परिचय ही मनुष्य को देवत्व की ओर ले चलता है। पूजा-पाठ वाला देवत्व नहीं, बल्कि अपने विचार, कर्म और साधना के धरातल पर जीवंत हो उठने वाला वह मनुष्यत्व, जो देवत्व को भी ईर्ष्या से दग्ध कर दे। वह संस्कृत, जो हर उस हिंदू के जन्म से मृत्यु तक के हर संस्कार और संवाद का अपरिहार्य अंग होती है, चाहे वह आस्थावादी हो या अनास्थावादी; उसका अंत करने का प्रयास वही कर रहे हैं, जिनकी मृत्यु के समय संस्कृत में ही मंत्र पढ़ते हुए मुखाग्नि दी जानी है। 
पहले सीबीएसई के अंतर्गत आने वाले विद्यालयों में त्रिभाषा सूत्र इस प्रकार लादा गया कि संस्कृत हटा कर उसकी जगह अंग्रेजी आ जाए। कारण कोई भी रहे, लेकिन हम सब किसी न किसी स्तर पर संस्कृत पढ़ कर ही बड़े हुए। जिन प्रांतों में हिंदी का विरोध है, जैसे तमिलनाडु या केरल, वहां भी संस्कृत विरोधहीन वातावरण में पढ़ी गई। जहां के पुजारी हिंदी में बात नहीं कर पाते वे धाराप्रवाह संस्कृत में व्याख्यान देते हैं और आसेतु हिमाचल ही संस्कृत संपूर्ण भारतीय समाज को एक सांस्कृतिक धागे से नहीं जोड़ती, बल्कि चीन, जापान, कांबोज से लेकर ईरान और लातिन अमेरिका में पाए जाने वाले प्राचीन अभिलेखों में मिले संस्कृत शब्द हमें उन देशों से अनायास जोड़ते हुए वसुधैव कुटुंबकम् का दृश्य आंखों के सामने साक्षात जीवंत कर देते हैं।
उस संस्कृत को आज उन पाठ्यक्रमों और शिक्षा क्षेत्र के विभिन्न हिस्सों से काट कर अलग किया जा रहा है, जहां वर्षों से उसकी उपस्थिति का कभी किसी वर्ग ने, किसी बहाने से भी, विरोध नहीं किया था।
सीबीएसई में अंग्रेजी और विदेशी भाषाओं के लिए जब जगह बनाने की आवश्यकता हुई, तो केवल संस्कृत को हटना पड़ा।
अब केंद्रीय विद्यालय संगठनों में निर्देश दिए गए हैं कि संस्कृत के साथ जर्मन, चीनी और फ्रांसीसी भाषा पढ़ने का विकल्प शामिल किया जाए और भले संस्कृत पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिए अध्यापक न हों, लेकिन कम संख्या में भी अगर विद्यार्थी जर्मन पढ़ना चाहें तो उनके लिए विशेष व्यवस्था की जाए और छात्रों को जर्मन, चीनी, फ्रांसीसी सीखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। अभी तक छठी से आठवीं तक प्रत्येक क्षेत्र के केंद्रीय विद्यालयों में संस्कृत अनिवार्य थी। नवीं में विकल्प दिया जाता था कि संस्कृत या कोई और विषय ले लिया जाए। 
अब संस्कृत छठी से आठवीं तक जर्मन, चीनी और फ्रांसीसी के समकक्ष रख दी गई है, जिसका एक ही अर्थ निकलता है कि सरकार संस्कृत को विदेशी भाषाओं के समान रख कर खुले तौर पर निर्देश देते हुए छात्रों और अध्यापकों को विदेशी भाषा सीखने की ओर बढ़ाना चाहती है। केंद्रीय विद्यालय के आयुक्त या उन आयुक्त को निर्देश देने वाले नेता और सत्ता पक्ष के नियंत्रक निश्चित रूप से उन लोगों में से आते हैं, जो समाज में तथाकथित उच्च जाति के, और जहां तक नाम और उनके प्रमाण-पत्रों का प्रश्न है, हिंदू कहे जाते हैं। 
इनसे बढ़ कर संस्कृत की हत्या करने वाला और कौन होगा, जो निर्लज्जता से न केवल संस्कृत के विश्वविद्यालयों को उपेक्षित करता, बल्कि संस्कृत में रोजगार के अत्यंत कम अवसर होने के बावजूद परंपरा से संस्कृत पढ़ने और पढ़ाने वालों को निरादृत करते हुए अब संस्कृत को विद्यालयीन शिक्षा क्षेत्र से भी निकाल बाहर कर रहा है।
ये धन्य हैं।
शायद ही किसी को इस बात से आपत्ति हो कि जर्मन भाषा या चीनी और फ्रांसीसी पढ़ी जाए।  लेकिन क्या वह संस्कृत की कीमत पर होना चाहिए? क्या अपनी मातृभूमि और विदेशी भूमि को हम एक जैसा मान सकते हैं? अगर धन, वैभव और अंतरराष्ट्रीय सुविधाओं और सम्मान के लिए विदेशी भाषाएं अपने देश की सांस्कृतिक धरोहर और स्वदेशी सम्मान से ज्यादा बड़ी मान ली गई हैं, तो फिर अंग्रेजों के खिलाफ भी लड़ने की क्या जरूरत थी? 
वैसे भी भारत में गोमाता की पूजा के जितने भी ढकोसले चलते हों, सर्वाधिक गो-हत्या कर गो-मांस का व्यापार करने वालों में तथाकथित उच्च जाति के हिंदुओं का ही नाम बड़े पैमाने पर आता है। वे भी धन्य हैं।
केवल संस्कृत नहीं, हिंदी भी अखबारों के कुछ ज्यादा ही पढ़े-लिखे, मालिक-संपादक अपने समाचारों और स्तंभों में अंग्रेजी के अस्वीकार्य और जुगुप्साजनक प्रयोग से क्षत-विक्षत कर रहे हैं। सरकार भी अपने संस्थानों में हिंदी खत्म करने पर तुली है।  हिंदी के बिना सब कुछ चलता है और हिंदी में वोट लेने की मजबूरी थोड़ी-बहुत निभा लेने के बाद हिंदी को बिना किसी सरकारी हानि की आशंका से आराम से लतियाया जा सकता है। संसद सांस्कृतिक हानि के प्रति चिंतित होगी, यह देखना बाकी है। 
बैंकों में कितने गजनवीपन से सरकार हिंदी के प्रति अपनी भावनाएं व्यक्त कर रही है, इसका विवरण तनिक देखिए। 
विभिन्न सरकारी बैंकों में राजभाषा अधिकारी पद की जितनी रिक्तियां होती हैं, उन्हें भरा नहीं जा रहा है और प्रार्थियों की योग्यताओं में से संस्कृत हटा कर अंग्रेजी जोड़ी जा रही है। 2009 में यूको बैंक में अठारह राजभाषा अधिकारी नियुक्त किए जाने की विज्ञप्ति निकली थी, लेकिन अंतिम रूप से केवल आठ का चयन किया गया और वह भी अंग्रेजी की जानकारी अनिवार्य करने के बाद। 2009 के बाद यूको बैंक में किसी राजभाषा अधिकारी की नियुक्ति नहीं की गई, ऐसी जानकारी है। 
इंडियन बैंक में 2009 में तेरह राजभाषा अधिकारियों की नियुक्ति की विज्ञप्ति निकाली गई थी, लेकिन केवल एक पद पर नियुक्ति की गई और बारह पदों पर क्यों नियुक्ति नहीं की गई, इसका भी कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया। पंजाब ऐंड सिंध बैंक में 2010 की विज्ञप्ति के अनुसार राजभाषा अधिकारी के दस पद रिक्त थे, लेकिन एक भी नियुक्ति नहीं की गई। आंध्र बैंक में 2011 की विज्ञप्ति के अनुसार दस राजभाषा अधिकारी के पद रिक्त थे, पर एक भी नियुक्ति नहीं की गई। पंजाब नेशनल बैंक में 2011 की विज्ञप्ति के अनुसार इक्यावन पद रिक्त थे, लेकिन केवल एक नियुक्ति का समाचार है। हिंदी और संस्कृत में पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री होने के बावजूद बैंक कहते हैं कि अंग्रेजी की डिग्री लाओ तब आपको हिंदी अधिकारी के नाते नियुक्ति मिलेगी।
इस परिस्थिति में रोने की भी जगह नहीं बचती।